प्रेम का मतलब कोई रिश्ता या संबंध बन जाना नहीं,


प्रेम का मतलब कोई रिश्ता या संबंध बन जाना नहीं, 

"प्रेम का मतलब कोई रिश्ता या संबंध बन जाना नहीं,
प्रेम का तो मतलब है-
कण कण में बिखरकर आनंदित हो जाना|"
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इसका अच्छा उदाहरण है हमारा शरीर|हम अपने पूरे शरीर में फैले हुए हैं|शरीर के कण कण में बिखरकर आनंदित हैं|जैसे कण कण में भगवान वैसे शरीर के कण कण में हम|कोई अंग पराया नहीं|चोट लग जाय तो कैसे प्रेम से सहलाते हैं|

ऐसा भी होता कि किसी और के शरीर को चोट पहुंचायी जाय|यह जडता है|व्यक्ति अपने शरीर में ही पूर्णता से रहे तो काफी है|जो ब्रह्माण्ड में है वही पिंड में है|इसमें रम जाना हमे साधना के शिखर तक पहुंचा सकता है|
यही ईश्वरीय प्रेम की अनुभूति करा सकता है जो ब्रह्माण्ड में व्याप्त है|वहाँ फिर कण कण में ईश्वरीय प्रेम समाया है|कृष्ण कहते हैं-मुझे सबका सुहृद् जाननेवाले को शांति हो जाती है|'

क्यों न हो, कुछ भी अलग है नहीं|यह ऐसा है जैसे हमारे हाथपांव में पृथकता बुद्धि आ जाय, वे सोचने लगें हमारे भीतर उनके प्रति प्रेम है या नहीं?
 
हम कहें-सुहृद् हैं हम, अकारण प्रेम करने वाले, हित करने वाले|
तो उन्हें शांति हो जाय कि ये तो हमारे अपने हैं, सचमुच हमारा हित चाहने वाले हैं|
हमसे कोई पूछे-क्या तुम्हें विश्वास है, क्या सचमुच तुम अपने शरीर के प्रत्येक अंग को चाहने वाले हो?
तो हम क्या कहेंगे? हम कहेंगे-इसमें विश्वास की क्या बात है! यह तो है ही|
इस तरह"सुहृदं सर्वभूतानाम्" कहने वाले कृष्ण कहेंगे-इसमें विश्वास की क्या बात है, यह सब मैं हूँ ही, मेरा अपना विस्तार है|अपने से दुराव कैसा?
यह समझ में आ जाय तो ईश्वर और ईश्वर का प्रेम प्रत्यक्ष है|
कृष्ण कहते हैं-"जो संपूर्ण भूतों में मुझे देखता है और संपूर्ण भूतों को मेरे अंतर्गत देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता|"
हम कहते हैं कहां छिपे हैं भगवान, दिखाई क्यों नहीं देते?
तो भगवान ही कहते हैं- मैं सबमें हूं, सब मुझमें है|'
यह बड़ी बात है|ईश्वर अंशी है तो अंश रुप में हम भी कह सकते हैं- मैं शरीर के सभी अंगों में हूँ, सभी अंग मुझमें हैं|'
यह व्यवस्था हर अंश में है|
पशु पक्षी के शरीरों में भी जो ईश्वर अंश मौजूद है वह उनके शरीरों के सभी अंगों में है, सभी अंग उसमें है|
इसका सीधा अर्थ है जैसे हम वैसे सब|यहाँ समझ की जरूरत पडती है|फिर किसीको भी हानि नहीं पहुंचाई जा सकती, फिर सबकी सेवा ही होती है|
जैसा आत्म प्रेम मुझमें है वैसा आत्म प्रेम सभी के अंदर है|कौन करता है आत्म घृणा? करता हो तो वह मनोरोगी है|आत्म घृणा भी वह आत्म प्रेम के कारण करता है|कहीं स्वयं के लिए तो प्रेम है ही भीतर|
इसका विस्तार होना चाहिए, मनोरोगी विस्तार नहीं कर पाता|वह मनके किसी खांचे में कैद जैसा है|एक सामान्य व्यक्ति ठीक है वह अपने पूरे शरीर से प्रेम करता है|
वह भी अधूरा है जब तक वह पूरे विश्व के कण कण में बिखरकर आनंदित नहीं हो जाता|उसकी हृदय ग्रंथि विलीन हो जाती है, हृदय सर्वत्र व्याप्त हो जाता है|
मनुष्य जो इतने कष्ट पा रहा है उसका कारण मैं मेरा के रूप में हृदय ग्रंथि ही है|
मैं अलग, मेरा अलग|
जब वह प्रेम के बारे में सुनता है तो वह संभव प्रतीत नहीं होता क्यों कि-
"प्रेम चिरकाल तक कष्ट सहन करता है और दयालु है|प्रेम ईर्ष्या नहीं करता|प्रेम अपनी बडाई नहीं करता, न फूल कर कुप्पा होता है|प्रेम अपनी भलाई नहीं चाहता, उद्विग्न नहीं होता, न बुरा सोचता|वह सब बातें सह लेता है, सब बातों पर विश्वास करता है, सब बातों की आशा रखता है और सब बातों में धैर्य रखता है|प्रेम कभी असफल नहीं होता|"

यहाँ तक कहते हैं कि-
"ईश्वरीय विधान भी प्रेम के आगे नतमस्तक है|"
ग्रहों से विचलित होने वाले बहुत हैं|शनि की साढेसाती सुनकर बहुत लोग घबराते हैं|उनके जप तप शुरू हो जाते हैं|साढेसाती न सही, कोई और कष्ट सही लेकिन आदमी घबराता सिर्फ इसलिए है क्योंकि प्रेम नहीं है|
अहंकार का सुख जिसे चाहिए वह प्रेम से दूर ही रहता है|उसके लिए प्रेम भी किसी पर मेहरबानी करने के अर्थ में है|ऐसा अहं सुख, दुख मे बदले बिना नहीं रहता|सुखदुख के सारे द्वंद्व अहंकार को लेकर हैं|
प्रेम निर्द्वन्द्व है|

"प्रेम संसार का स्थायी सत्य है|प्रेम अंत:करण का अमृत है जो विकसित होकर विश्व प्रेम और प्राणीमात्र तक फैल जाता है|प्रेम में मनुष्य की जीवनधारा बदलने की शक्ति होती है|प्रेम बेगानों को अपना और शत्रुओं को भी मित्र बना लेता है|शुद्ध प्रेम के लिए दुनिया में कोई बात असंभव नहीं है|"

अगर स्वार्थी बुद्धि से ही सही, प्रेम के फायदे जानकर भी कोई इस दिशा में कदम रखता है तो सारे दुख, दुर्भाग्य हाथ जोडकर खडे हो जाते हैं|आदमी जिनके वश में होता है, वे आदमी के वश में हो जाते हैं|
हो सकता है मुझमें भी प्रेम न हो तथा दुख अप्रिय लगता हो तब मेरे लिए भी यही सत्य है|ऐसा नहीं कि यह केवल पाठकों के लिए ही है|
मुझमें प्रेम नहीं है तो कठिन तो है लेकिन इसका महत्व समझ में आ जाना बहुत बड़ी बात है|यह स्वतंत्र करने लगता है फिर कोई मुझसे प्रेम न करे, सारा संसार मुझसे प्रेम न करे तो भी कोई फर्क नहीं पडता क्यों कि मुझे समझ में आ चुका है|

सदुपदेश देने वाले की यह तकलीफ है, उसे अपेक्षा हो जाती है कि लोग उसे मानें|
न मानें तो पीड़ा होती है|
होना यह चाहिए कि वह अपने ज्ञान द्वारा अपने को स्वतंत्र करे फिर जिसका जैसा है ठीक है|सात्विक, राजसी, तामसी बुद्धि में बंटे बहुत लोग हैं|कोई माने उसकी मर्जी, न माने उसकी मर्जी|वह हमारा विषय नहीं होना चाहिए|हमें समझ में आ गया कि प्रेम से व्यक्तिगत, सामूहिक कितने बड़े लाभ हैं तो फिर ठीक है|कठिन होते हुए भी कोशिश होगी जैसे एक सामान्य व्यक्ति भी कार्य कठिन होने पर भी कोशिश करता है , उसके फायदे जो हैं|
इसलिए सांसारिक स्वार्थ की दृष्टि से ही सही जो आध्यात्मिक मूल्य लाभ देने वाले हैं उन्हें जीवन में अपनाने की कोशिश करनी चाहिए|लाभ समझ में जिसके आया वह कोशिश करता ही है उसे प्रेरणा देनी नहीं पडती, वह खुद प्रेरित होता है|स्वार्थ क्या नहीं करता!
 
प्रेम ही प्रार्थना है|आदमी भय, चिंता, शंका की यातना झेलता रहता है, उसे याद ही नहीं आती कि सब सुखी हों ऐसा भाव उसके हृदय में हों तो इन सभी रोगों से आसानी से मुक्ति पायी जा सकती है|
तब प्रेम, राग-मोह- आसक्ति का रुप भी नहीं लेता|
प्रेम के पर्याय के रूप में करुणा, दया, वात्सल्य, स्नेह, सहानुभूति, सेवा, परोपकार, त्याग, क्षमा आदि ठीक होते हैं|बेठीक है तो वह है इनकी अनिच्छा|इस अनिच्छा के कारण घोर असंतुलन पैदा होता है|और आदमी अनसुलझे प्रश्नों में ही अपनी जीवनयात्रा जारी रखता है|

कठिन है उसमें कोई हर्ज नहीं, प्रयत्न से कठिन भी सरल होता है लेकिन अनिच्छा है, अस्वीकार है तो फिर आदमी खुद ही अपने हित का द्वार बंद कर लेता है|वह अपना ही शत्रु होता है, और इस भ्रम में रहता है कि वह अपना मित्र है|
ऐसा आदमी "सुधारक", "उद्धारक" भी हो जाता है परन्तु उद्धार तो वही करता है जो किसी को दोषी मानता ही नहीं|
सभी को उससे राहत होती है|रास्ते में आयी रुकावट दूर हो जाती है|
खुद कृष्ण दोषी नहीं मानते|वे कहते हैं-जीव तो कर्ता है ही नहीं, कर्ता तो प्रकृति के गुण हैं|वह अज्ञानवश स्वयं को कर्ता मान लेता है|'
उस दृष्टि से भूल, बेहोशी, अज्ञान, सत्य का पता न होना ही दोष है|मगर पता ही नहीं है तो उसे दोषी कैसे माना जा सकता है?
इसका अर्थ है-

"दुनिया में कोई भी बुरा नहीं है|सभी अपने मूल रूप में भले हैं|"
भला जानने पर भला करना संभव है, प्रेम संभव है|









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